आज घर बड़े हो गये हैं परिवार छोटा ।
हम खर्च बहुत करते हैं पर हमारे पास 'ख़ास ' कुछ नहीं होता । ।
डिग्रियां हैं पर समझ नहीं ,
तर्क बहुत होता है पर सही निर्णय कम या बहुत कम होतें हैं ।
आज की सबसे बड़ी बाधा है कि सही आदमी न्याय के लिए भटक रहा है । न्याय भी बिकने लगा है । सुनने या पढने में बुरा लगता है और यह हमारे देश कि न्याय पालिका कि गरिमा का सवाल है पर यही सच है ।
कोई पीड़ित है तो गरीब और छोटा होने के कारण कोई अधिकारी उसकी नहीं सुनता । नेता जो जनता के हित के लिए चुन कर आते है वो भी गलत और सही नहीं देखना चाहते वो केवल अपनी कुर्सी बचाने के चक्कर में रहते है
आज लोग घर बड़ा बनातें है पर परिवार बहुत छोटा हो गया है । आज का इंसान प्रार्थना करना नहीं जानता है । परन्तु कामना बहुत रखता है । जीवन यापन तो हो जाता है पर लेकिन जिन्दगी जीना क्या है वो नहीं जानता ।
हमारे पास ग्रंथों का भण्डार है पर सीखतें नहीं ,जानते नहीं ।
आज का आदमी नफरत बहुत जल्दी सीख लेता है प्यार नहीं ।
Saturday 14 August 2010
Tuesday 22 December 2009
उत्तम संतान के लिए ......
आज के इस संक्रमित युग में माता -पिता कि एक सबसे बड़ी चिंता यह होती है कि मैं कैसे अपनी संतान को इस प्रकार बनाऊं कि वह हर प्रकार से उन्नत हो । आज के इस चमक -दमक और दिखावे कि जिन्दगी में हम अपने ठोस जीवन मूल्यों को कहीं पीछे छोड़तें जा रहे है ।
हमारे मनीषियों ने जो जीवन दर्शन हमें दिया वह हम भूल रहे हैं ,आज जो जितना चालाक है वह उतना ही तेज माना जाता है । झूठ बोलकर लोग मानते हैं कि मैंने तो जीत लिया जब अपने साथ यही होता है तो उपदेश पिलाने लगतें हैं ।
मैंने यह भी देखा कि एक माँ के अगर तीन या चार बच्चे हैं तो वह अपने बच्चों में भी भेद कि भावना को जगाती है और वो जब बड़े होतें हैं तो आपस में वैर भाव रखतें हैं । माँ ही जब यह होने देती है तो फिर कौन रोके ?
मैं अपने घर में सबसे बड़ी हूँ मेरे दो देवर हैं मुझसे बहुत छोटे करीब १५से १९ वर्ष का अंतर है ,जो सबसे छोटा है वो एक गाना गाता था ,जब वो सात साल का हुआ तब "अंगना में आई खराब भौजी "ये गाना माता जी ने और बुआ जी ने सिखाया था और भी तमाम ऐसे किस्से हैं ।
यहाँ मुझे कहना ये है कि इतने छोटे बच्चे में यह बीज किसने डाला । बचपन का पड़ा हुआ बीज धीरे -धीरे अंकुरित होकर वृक्ष बन जाता है वृक्ष बनने के बाद वह फलेगा भी ।
आप अगर चाहतें हैं कि आपका बच्चा इंसान बने तो पहले उसमे पुष्ट बीज अंकुरित करिए जब वह परिपक्व हो जायगा तो अच्छे -बुरे की पहचान करना सीख लेगा । आप उसे दोनों बताईये कि अच्छा क्या है और बुरा किसे कहतें हैं । अच्छे होने से क्या होता है और बुरे होने के क्या परिणाम होतें है । हमें क्यों अच्छा बनना चाहिए ।
पहली और सबसे अहम बात यह है कि आप का जीवन वैसा ही होना चाहिए जो आप अपने बच्चे में देखना चाहतें हैं। मैंने अपने जीवन में अपने अनुभवों से जो सीखा यहाँ लिखना चाहतीं हूँ । मैंने अपने बच्चों में तब तक किसी के लिए गलत धारणा नहीं पनपने दी जब तक कि वे वयस्क नहीं हो गए । जब तक कि वे खुद अच्छे और बुरे का भेद नहीं जान गए मेरे दोनों बच्चे बहुत अच्छे इंसान हैं।
हमारे ग्रन्थ कहतें है -
ब्रम्हा जी ने कई बार श्रिष्टी कि रचना कि तब जाकर ऐसा इंसान बना पाए जो सर्व गुण युक्त हुआ ।ब्रम्हा जी ने प्रथम रचना अज्ञान में कि थी इसलिए वह पाप कर्म में लिप्त हो गई ब्रम्हा जी दुखी हुए ।
दूसरी बार उन्होंने अपने मन को ध्यान से पवित्र किया तब रचना कि तो इस बार चार उर्ध्वरेता मुनि उत्पन्न हुए इनके नाम हैं -सनक ,सनंदन ,सनातन और सनत्कुमार । परन्तु ये पूर्ण वैरागी थे ये चारो यद्यपि आज्ञाकारी थे परन्तु संसार कि रचना करने को तैयार नहीं हुए । ब्रम्हा जी अपने इन पुत्रों से नाराज हो गए । क्रोध में आकर उन्होंने फिर से रचना कि ;इस बार जो संतान हुई वह बहुत रो रही थी परेशा थी कि मैं कहाँ रहूँ मुझे सुख पूर्वक रहने के लिए स्थान चाहिए । ब्रम्हा जी ने दिया ये रो रहे थे इसलिए इनका नाम रूद्र हुआ ये १० थे और ब्रम्हा जी १० कन्याओं से इनका विवाह किया ।
ये लोग श्रृष्टि में रत हुए पर इनकी संताने बड़ी हिंसक और बलवान थी । ये पृथ्वी के जीवो को खाने लगे ,आपस में लड़ने मरने लगे देवताओं को भी इनसे भय लगने लगा । ब्रम्हा जी फिर दुखी हुए अपनी इस भयंकर रचना से ।
सोचने लगे क्या करू कि इस पृथ्वी पर सुन्दर और सुव्यवस्थित रचना हो सके । ब्रम्हा जी वाणी सुनी " तप "।
ब्रम्हा जी तप करने बैठ गए । उन्होंने श्री हरी का ध्यान किया । तब उनके शरीर से एक स्त्री - पुरुष का जोड़ा उत्पन्न हुआ जो मनु और शतरूपा के नाम से जाने गए ।
इस कथा से यह समझना चाहिए कि -
ब्रम्हा जी कि प्रथम रचना जो अज्ञान थी वह पाप में रत हो गई अर्थात अज्ञान ही गलत कर्म का कारण होता है । जो श्रृष्टि वैराग में रची गई वह संसार कर्मो से पूर्ण रूप से उदासीन थी । तीसरी बार जब क्रोध में श्रृष्टि कि रचना हुई तो वह हिंसक थी ।
चौथी बार जब ब्रम्हा जी ने श्री हरी कि उपासना कि तप किया तब मनु और शतरूपा का जन्म हुआ । ब्रम्हा जी अपनी इस श्रृष्टि से प्रसन्न हुए ।
ब्रम्हा जी के पुत्र मनु श्री विष्णु भगवान् के परम भक्त थे और उनकी पत्नी शतरूपा आज्ञाकारिणी थी । मनु ने हाथ जोड़ कर ब्रम्हा जी से कहा -हम आपकी संतान हैं । हम ऐसा कौन सा कर्म करे जिससे आपकी सेवा बन सके । ब्रम्हा जी वीर और आज्ञाकारी पुत्र पाकर बहुत प्रसन्न हुए और बोले तुम गुणवान संतान उत्पन्न करो और धर्म पूर्वक इस पृथ्वी का पालन करो । एक सुन्दर सृष्टि कि रचना करो ।
इस प्रकार हम सब मनु कि संतान है । ब्रम्हा जी सुन्दर रचना ।
यही है इस श्रिष्टी कि रचना कथा । इस कथा से एक बात साफ़ होती है कि अभिभावक के गुण संतान कों मिलतें हैं
स्वायम्भुव मनु और शतरूपा ,जिनके द्वारा मनुष्यों कि अनुपम श्रृष्टि हुई ये दोनों धर्म और आचरण में बहुत अच्छे थे । वेद भी उनकी मर्यादा का गान करतें हैं । मनु जी ने शाश्त्रों कि मर्यादा का पालन किया ।
आईये जानतें हैं शाश्त्र मर्यादित जीवन के बारे में -
हमारे शाश्त्रों में भोजन कों देवता का प्रसाद माना गया है ;इसलिए इसे पकाने और खाने में भी विशेष शुद्धता का ख्याल रखने कों कहा गया है । हम जो कुछ खातें हैं उसी से हमारे शरीर का गठन होता है ,हमारे मन और मस्तिष्क पर हमारे खान -पान का सीधा असर पड़ता है । इसलिए हमारा खाना शुद्ध और पौष्टिक होना चाहिए ।
भोजन ज्यादा तला हुआ ,जरुरत से ज्यादा पका हुआ ,अशुचि और अरुचि से बनाया हुआ ,बासी ,तामसी नहीं होना चाहिए । ऐसा भोजन (खाना )विकार उत्पन्न करता है ।
-नशा नहीं करना चाहिए इससे मानसिक संतुलन खो जाता है और इसका असर संतान पर अवश्य पड़ता है । नशा करने से इंसान कि रक्त वाहिनी नाड़ियाँ कमजोर हो जातीं हैं । हमारा शरीर प्रकृति के साथ ही सुन्दर और स्वस्थ रहता है । इसलिए किसी भी प्रकार के नशे जैसे -बीडी ,सिगरेट ,शराब ,तम्बाकू या अन्य नशीली वस्तुओं का सेवन नहीं करना चाहिए ऐसा करना स्वयं अपनी बदहाली कों निमंत्रण देना है ।
यजुर्वेद में कहा है- " हे पित्रगण ! पुष्टिकर पदार्थों से बने शरीर वाले इस सुन्दर बालक का पोषण करें ताकि वह इस पृथ्वी पर वीर पुरुष बन सके । "
हम सबके लिए स्वच्छ जल ,अन्न ,घृत ,दूध ,फूलों के रस और फलो का रस अमृत के समान है । इसके सेवन से शरीर निरोग और पुष्ट होता है ,मन और बुद्धि निर्मल होती है । हम पवित्र और तेजवान बनते हैं । स्वच्छ जल के स्नान के बिना हमारा शरीर अशुद्ध रहता है ,किसी पावन कर्म में हिस्सा नहीं ले सकते ,घृत कों अमृत कि संज्ञा दी गयी है । देवों का यजन घृत के बिना शुद्ध नहीं कहा जाता । घृत का सेवन हमें निरोग बनाता है आँखों कि ज्योत बनी रहती है । घृत कों बलवर्धक कहा गया है ।
दूध का सेवन हमारे शरीर कि हड्डियों कों मजबूत करता है । दूध में दिव्य गुण होतें हैं । शुद्ध अनाज हमारा सम्पूर्ण शरीर पुष्ट रखता है । भोजन कि अशुद्धता या कमी कई प्रकार के रोगों का कारण होता है ।
संयम और नियम -
केवल मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जो अपने मन ,मस्तिष्क और काया कों उर्ध्वगामी बना सकता है । हमारे मनीषियों ने कहा है कि -सूर्योदय से पहले बिस्तर कों छोड़ देने से तन और मन दोनों स्वस्थ रहतें हैं । आनंद कि अनुभूति होती है ,सुबह कि हवा में प्राण होतें है इसलिए ताजगी आती है । दिन कि शुरुआत ईश प्रार्थना से करनी चाहिए ।
हमारे देश के मुनियों ने अपार विद्वता ,अद्वितीय क्षमता ,अनुपम सौंदर्य और दिव्यता सब संयम और नियम के बल पर पाया है ,धर्म के पथ पर चल कर पाया है ।
भोगों के बीच में रहकर योगी का जीवन जीना यही यम और नियम है । अपनी उत्कृष्टता कों बना कर रहना यही संयम है । यह सब स्त्री -पुरुष दोनों कों करना चाहिए तभी पूर्ण होता है नियम और संयम ।
जिस घर में बच्चे चरित्रवान हैं तो समझिये माता -पिता के चरित्र का पूर्ण योगदान है । इसको ध्यान में रखकर अपने आचरण में हर प्रकार कि शुचिता और शुद्धता लाना भावी माता -पिता का कर्तव्य है ।
संध्या का काल घोर बेला कही गई है इस बेला में शिव जी अपने गानों के साथ रहतें है पृथ्वी पर इस बेला में पूर्ण शुद्धता का ख्याल रखना चाहिए ,ब्रम्हचर्य नियमो का पालन करना चाहिए इसके अलावा एकादशी और अमावस कों भी ब्रम्हचर्य व्रत का पालन करना चाहिए । ग्रहण काल पूर्ण रूप से वर्जित है इसमें भी नियमों का पालन करे
गर्भावस्था में माँ कों किस प्रकार रहना चाहिए आइये जानतें हैं शाश्त्र इस बारे में क्या कहता है -
भागवत में वर्णन है कि किस प्रकार उत्तम ,वीर और उर्ध्वगामी संतान प्राप्त कर सकते है
-किसी को भी मन वाणी या क्रिया के द्वारा पीड़ा न पहुचाएं ।
-अकारण किसी से ईर्ष्या न रखे ,किसी से गाली -गलोच न करे ।
-झूठ न बोले ,हमारे शास्त्रों में नाखून काटना भी वर्जित बताया है ।
-किसी अशुभ वस्तु का स्पर्श न करे ।
-नदी या तालाब में घुस कर स्नान न करे ।
-क्रोध न करें ,बुरे लोगों से बात न करें ,जिसे देख कर आप असहज हो जातें हो उससे दूर रहें ।
-रोज स्नान करें ,धुला हुआ वस्त्र पहने ,किसी का पहना हुआ वस्त्र न धारण करें ।
-जूठा ,बासी और मांसयुक्त भोजन न करें ।
-शूद्र का छुआ ,अशुद्ध व्यक्ति का लाया हुआ ,जहां -तहां भोजन न करे ।
-अंजुली से पानी न पियें ।
-जूठे मुख बाहर न निकलें ,संध्या काल में भी बाहर न निकलें (जो माँ बनने वाली हो )।
-संध्या के समय बालों को खुला न रखें और न कंघी करें ।
-संध्या कि बेला शिव जी का है इस समय वो अपने गणों के साथ पृथ्वी भ्रमण करतें है इसलिए इस बेला में शुद्ध होकर श्री हरी का ध्यान करना उत्तम होता है ।
-अमंगल वेश में न रहें ,अपने मांगलिक चिन्हों से युक्त रहे।
-सभी कर्म जो -जो निषिद्ध है उनका त्याग करें ।
-बिना पैर धोये अपवित्र अवस्था में विस्तर पर न जाय ।
-उत्तर या पश्चिम कि तरफ सर करके न सोयें ।
-संध्या काल में कदापि न सोये ।
-सूर्योदय से पहले विस्तर त्याग दे । स्नान के पश्चात् श्री हरी को स्मरण करे ,सूर्य को अर्घ्य जरुर दे ।
-स्वयं भोजन करने से पहले अपने से बड़ो को ,ब्राम्हण ,गाय और याचक को भोजन दे ।
-हमेशा क्रियाशील और प्रसन्नचित रहना गर्भावस्था में आवश्यक है इसका सीधा असर शिशु पर पड़ता है ।
-भोजन में दूध ,दही रोज लेना चाहिए ।
-भोजन ,वस्त्र ,शैया ,स्थान ,संग ,दृश्य ,वातावरण ,मन ,बुद्धि ,शरीर सब कुछ साफ़ ,स्वच्छ और शोभनीय बना कर रखें ।
-घर का वातावरण सुगन्धित और प्रसन्न करने वाला होना चाहिए ।
-नियमित रूप से श्री हरी का दर्शन ,पूजन करें ,उनको उत्तम भोग अर्पित करें ।
-ध्यान रखें कि मेरी कोख में एक तेजपुंज पल रहा है ,इसे मुझे महान बनाना है ।
भागवत में लिखा है अदिति ने इस प्रकार नियम का पालन करके वीर संतान पाया जो इंद्र को मार सका ।
इस नियम में श्री कृष्ण के बाल रूप कि पूजा करे ।
अर्थात महान ऐश्वर्यों के अधिपती भगवान् पुरुषोत्तम को नमस्कार है । घृत मिश्रित खीर से १२बार आहुतियाँ दे। ब्राम्हण को भोजन दे ,माला और चन्दन से पूजन करें ।
पुत्र प्राप्ति के लिए हमारे शास्त्रों में एक बेहद प्रभावशाली मन्त्र बताया गया है ,यह देव गुरु श्री नारद जी का दिया हुआ मन्त्र है । हम अपने पाठकों के लिए यहाँ दे रहे हैं -
मन्त्र है --देवकी सुत्त गोविन्द वासुदेव जगत्पते ,देहि में तनयं कृष्ण त्वामहं शरणम् गतः !
इस मन्त्र को एक लाख जपना चाहिए ।
निश्चय ही कामना पूर्ण होगी ।
मन्त्र को श्री कृष्ण कि बाल मूर्ति के सामने जपना चाहिए ।
पूर्ण श्रद्धा और भक्ती के साथ जपे ईश्वर कि कृपा तो कुछ क्षणों में भी मिल सकती है ।
संध्या काल ,ग्रहण काल ,एकादशी ,अष्टमी ,पूर्णमासी और अमवस्या को विशेष फल मिलता है ।
मन्त्र में देवता का स्वरूप बसता है इसलिए वस्त्र और आसन पवित्र होने चाहिए ।
मन्त्र कि शक्ति से असाध्य भी साध्य बन जाता है । मन्त्र मन में और सस्वर भी जपा जाता है । सबसे जरुरी बात है ध्यान लगने कि ,ईश्वर से तादात्म्य होने कि । जब साधक कि अन्तश्चेतना जगती है तो वह सामान्य मानव से ऊपर उठ जाता है और मन्त्र अपना प्रभाव देता है ।
आइये अब हम इस पर चर्चा करें कि बच्चों के साथ किस तरह से व्यवहार किया जाना चाहिए -
बच्चे जब जन्म लेते हैं तो वो एक ताजा ,स्वच्छ खिले हुए फूल कि तरह होतें हैं ।बच्चे पूरी तरह से अपने अभिभावक पर निर्भर होतें हैं । बच्चों कि देखभाल बहुत सावधानी और जिम्मेदारी के साथ करनी चाहिए । सफाई और स्वच्छता पर विशेष ध्यान देना चाहिए ।
कुछ माताएं जो सोचतीं हैं कि स्तन पान कराने से उनका शरीर बिगड़ जायगा ,तो आज के डॉक्टर भी यह कहतें हैं कि छः महीने तक शिशु को दुग्ध पान कराना चाहिए । स्तनपान से माताओं को कोई हानि नहीं होती ।
स्तन पान कराने वाली माताएं अपने भोजन में पौष्टिकता का ख्याल जरुर रखे ताकि उनका बच्चा स्वस्थ रहे ।
स्तन पान तब कराये जब आप प्रसन्न अवस्था में हो । शिशु जब तक माँ का दूध पीता हैं तब तक माँ के खान -पान ,विचार का सीधा सम्बन्ध शिशु से होता है ।
इसलिए दुग्ध पान कराने वाली माताएं अपने भोजन और आचरण पर ध्यान दे ।
माँ का दूध शिशु को स्वस्थ रखने के साथ -साथ उसकी रोग निरोधक क्षमता को बढाता है ।
माँ का दूध बच्चे के लिए पूर्ण आहार का काम करता है ।
स्वस्थ माँ का बच्चा भी स्वस्थ और प्रसन्न रहेगा उसका सम्पूर्ण विकास उचित रीति से होगा ।
बच्चे के स्नान और आहार का भी समय रखना चाहिए । जब माँ समय का ध्यान रख कर बच्चे का हर कार्य करेगी तो बच्चा उसी सारिणी में चलेगा ।
जैसे बहुत छोटे एक से दो माह के शिशु को एक -एक धंटे पर आहार दे १० या १५ दिन बाद आप देखेंगे एक घंटे एक बाद आपका शिशु रोने लगेगा कि उसे आहार मिले ।
इसी तरह जैसे -जैसे वह बड़ा हो उसकी चर्या और खान -पान एक नियम के साथ चलाइये ।
आप अपने शिशु के आहार में पौष्टिकता का ख्याल रखिये आप अपने बच्चे को हँसते खेलते बढ़ता हुआ देखेंगे ।
जब बच्चा चलने लगे बोलने लगे आप देखेंगे वह निरंतर सीखने कि प्रक्रिया में लगा रहता है ।
इस काल में अपने घर का वातावरण बच्चे देखते हैं और ग्रहण करते हैं । अब यह पूरी तरह अभिभावक को समझना चाहिए कि अपने घर का माहौल कैसे अच्छे से अच्छा बना कर रखें ।
कुछ बातें जिनका ख्याल रखें -
हमारे मनीषियों ने जो जीवन दर्शन हमें दिया वह हम भूल रहे हैं ,आज जो जितना चालाक है वह उतना ही तेज माना जाता है । झूठ बोलकर लोग मानते हैं कि मैंने तो जीत लिया जब अपने साथ यही होता है तो उपदेश पिलाने लगतें हैं ।
मैंने यह भी देखा कि एक माँ के अगर तीन या चार बच्चे हैं तो वह अपने बच्चों में भी भेद कि भावना को जगाती है और वो जब बड़े होतें हैं तो आपस में वैर भाव रखतें हैं । माँ ही जब यह होने देती है तो फिर कौन रोके ?
मैं अपने घर में सबसे बड़ी हूँ मेरे दो देवर हैं मुझसे बहुत छोटे करीब १५से १९ वर्ष का अंतर है ,जो सबसे छोटा है वो एक गाना गाता था ,जब वो सात साल का हुआ तब "अंगना में आई खराब भौजी "ये गाना माता जी ने और बुआ जी ने सिखाया था और भी तमाम ऐसे किस्से हैं ।
यहाँ मुझे कहना ये है कि इतने छोटे बच्चे में यह बीज किसने डाला । बचपन का पड़ा हुआ बीज धीरे -धीरे अंकुरित होकर वृक्ष बन जाता है वृक्ष बनने के बाद वह फलेगा भी ।
आप अगर चाहतें हैं कि आपका बच्चा इंसान बने तो पहले उसमे पुष्ट बीज अंकुरित करिए जब वह परिपक्व हो जायगा तो अच्छे -बुरे की पहचान करना सीख लेगा । आप उसे दोनों बताईये कि अच्छा क्या है और बुरा किसे कहतें हैं । अच्छे होने से क्या होता है और बुरे होने के क्या परिणाम होतें है । हमें क्यों अच्छा बनना चाहिए ।
पहली और सबसे अहम बात यह है कि आप का जीवन वैसा ही होना चाहिए जो आप अपने बच्चे में देखना चाहतें हैं। मैंने अपने जीवन में अपने अनुभवों से जो सीखा यहाँ लिखना चाहतीं हूँ । मैंने अपने बच्चों में तब तक किसी के लिए गलत धारणा नहीं पनपने दी जब तक कि वे वयस्क नहीं हो गए । जब तक कि वे खुद अच्छे और बुरे का भेद नहीं जान गए मेरे दोनों बच्चे बहुत अच्छे इंसान हैं।
हमारे ग्रन्थ कहतें है -
ब्रम्हा जी ने कई बार श्रिष्टी कि रचना कि तब जाकर ऐसा इंसान बना पाए जो सर्व गुण युक्त हुआ ।ब्रम्हा जी ने प्रथम रचना अज्ञान में कि थी इसलिए वह पाप कर्म में लिप्त हो गई ब्रम्हा जी दुखी हुए ।
दूसरी बार उन्होंने अपने मन को ध्यान से पवित्र किया तब रचना कि तो इस बार चार उर्ध्वरेता मुनि उत्पन्न हुए इनके नाम हैं -सनक ,सनंदन ,सनातन और सनत्कुमार । परन्तु ये पूर्ण वैरागी थे ये चारो यद्यपि आज्ञाकारी थे परन्तु संसार कि रचना करने को तैयार नहीं हुए । ब्रम्हा जी अपने इन पुत्रों से नाराज हो गए । क्रोध में आकर उन्होंने फिर से रचना कि ;इस बार जो संतान हुई वह बहुत रो रही थी परेशा थी कि मैं कहाँ रहूँ मुझे सुख पूर्वक रहने के लिए स्थान चाहिए । ब्रम्हा जी ने दिया ये रो रहे थे इसलिए इनका नाम रूद्र हुआ ये १० थे और ब्रम्हा जी १० कन्याओं से इनका विवाह किया ।
ये लोग श्रृष्टि में रत हुए पर इनकी संताने बड़ी हिंसक और बलवान थी । ये पृथ्वी के जीवो को खाने लगे ,आपस में लड़ने मरने लगे देवताओं को भी इनसे भय लगने लगा । ब्रम्हा जी फिर दुखी हुए अपनी इस भयंकर रचना से ।
सोचने लगे क्या करू कि इस पृथ्वी पर सुन्दर और सुव्यवस्थित रचना हो सके । ब्रम्हा जी वाणी सुनी " तप "।
ब्रम्हा जी तप करने बैठ गए । उन्होंने श्री हरी का ध्यान किया । तब उनके शरीर से एक स्त्री - पुरुष का जोड़ा उत्पन्न हुआ जो मनु और शतरूपा के नाम से जाने गए ।
इस कथा से यह समझना चाहिए कि -
ब्रम्हा जी कि प्रथम रचना जो अज्ञान थी वह पाप में रत हो गई अर्थात अज्ञान ही गलत कर्म का कारण होता है । जो श्रृष्टि वैराग में रची गई वह संसार कर्मो से पूर्ण रूप से उदासीन थी । तीसरी बार जब क्रोध में श्रृष्टि कि रचना हुई तो वह हिंसक थी ।
चौथी बार जब ब्रम्हा जी ने श्री हरी कि उपासना कि तप किया तब मनु और शतरूपा का जन्म हुआ । ब्रम्हा जी अपनी इस श्रृष्टि से प्रसन्न हुए ।
ब्रम्हा जी के पुत्र मनु श्री विष्णु भगवान् के परम भक्त थे और उनकी पत्नी शतरूपा आज्ञाकारिणी थी । मनु ने हाथ जोड़ कर ब्रम्हा जी से कहा -हम आपकी संतान हैं । हम ऐसा कौन सा कर्म करे जिससे आपकी सेवा बन सके । ब्रम्हा जी वीर और आज्ञाकारी पुत्र पाकर बहुत प्रसन्न हुए और बोले तुम गुणवान संतान उत्पन्न करो और धर्म पूर्वक इस पृथ्वी का पालन करो । एक सुन्दर सृष्टि कि रचना करो ।
इस प्रकार हम सब मनु कि संतान है । ब्रम्हा जी सुन्दर रचना ।
यही है इस श्रिष्टी कि रचना कथा । इस कथा से एक बात साफ़ होती है कि अभिभावक के गुण संतान कों मिलतें हैं
स्वायम्भुव मनु और शतरूपा ,जिनके द्वारा मनुष्यों कि अनुपम श्रृष्टि हुई ये दोनों धर्म और आचरण में बहुत अच्छे थे । वेद भी उनकी मर्यादा का गान करतें हैं । मनु जी ने शाश्त्रों कि मर्यादा का पालन किया ।
आईये जानतें हैं शाश्त्र मर्यादित जीवन के बारे में -
हमारे शाश्त्रों में भोजन कों देवता का प्रसाद माना गया है ;इसलिए इसे पकाने और खाने में भी विशेष शुद्धता का ख्याल रखने कों कहा गया है । हम जो कुछ खातें हैं उसी से हमारे शरीर का गठन होता है ,हमारे मन और मस्तिष्क पर हमारे खान -पान का सीधा असर पड़ता है । इसलिए हमारा खाना शुद्ध और पौष्टिक होना चाहिए ।
भोजन ज्यादा तला हुआ ,जरुरत से ज्यादा पका हुआ ,अशुचि और अरुचि से बनाया हुआ ,बासी ,तामसी नहीं होना चाहिए । ऐसा भोजन (खाना )विकार उत्पन्न करता है ।
-नशा नहीं करना चाहिए इससे मानसिक संतुलन खो जाता है और इसका असर संतान पर अवश्य पड़ता है । नशा करने से इंसान कि रक्त वाहिनी नाड़ियाँ कमजोर हो जातीं हैं । हमारा शरीर प्रकृति के साथ ही सुन्दर और स्वस्थ रहता है । इसलिए किसी भी प्रकार के नशे जैसे -बीडी ,सिगरेट ,शराब ,तम्बाकू या अन्य नशीली वस्तुओं का सेवन नहीं करना चाहिए ऐसा करना स्वयं अपनी बदहाली कों निमंत्रण देना है ।
यजुर्वेद में कहा है- " हे पित्रगण ! पुष्टिकर पदार्थों से बने शरीर वाले इस सुन्दर बालक का पोषण करें ताकि वह इस पृथ्वी पर वीर पुरुष बन सके । "
हम सबके लिए स्वच्छ जल ,अन्न ,घृत ,दूध ,फूलों के रस और फलो का रस अमृत के समान है । इसके सेवन से शरीर निरोग और पुष्ट होता है ,मन और बुद्धि निर्मल होती है । हम पवित्र और तेजवान बनते हैं । स्वच्छ जल के स्नान के बिना हमारा शरीर अशुद्ध रहता है ,किसी पावन कर्म में हिस्सा नहीं ले सकते ,घृत कों अमृत कि संज्ञा दी गयी है । देवों का यजन घृत के बिना शुद्ध नहीं कहा जाता । घृत का सेवन हमें निरोग बनाता है आँखों कि ज्योत बनी रहती है । घृत कों बलवर्धक कहा गया है ।
दूध का सेवन हमारे शरीर कि हड्डियों कों मजबूत करता है । दूध में दिव्य गुण होतें हैं । शुद्ध अनाज हमारा सम्पूर्ण शरीर पुष्ट रखता है । भोजन कि अशुद्धता या कमी कई प्रकार के रोगों का कारण होता है ।
संयम और नियम -
केवल मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जो अपने मन ,मस्तिष्क और काया कों उर्ध्वगामी बना सकता है । हमारे मनीषियों ने कहा है कि -सूर्योदय से पहले बिस्तर कों छोड़ देने से तन और मन दोनों स्वस्थ रहतें हैं । आनंद कि अनुभूति होती है ,सुबह कि हवा में प्राण होतें है इसलिए ताजगी आती है । दिन कि शुरुआत ईश प्रार्थना से करनी चाहिए ।
हमारे देश के मुनियों ने अपार विद्वता ,अद्वितीय क्षमता ,अनुपम सौंदर्य और दिव्यता सब संयम और नियम के बल पर पाया है ,धर्म के पथ पर चल कर पाया है ।
भोगों के बीच में रहकर योगी का जीवन जीना यही यम और नियम है । अपनी उत्कृष्टता कों बना कर रहना यही संयम है । यह सब स्त्री -पुरुष दोनों कों करना चाहिए तभी पूर्ण होता है नियम और संयम ।
जिस घर में बच्चे चरित्रवान हैं तो समझिये माता -पिता के चरित्र का पूर्ण योगदान है । इसको ध्यान में रखकर अपने आचरण में हर प्रकार कि शुचिता और शुद्धता लाना भावी माता -पिता का कर्तव्य है ।
संध्या का काल घोर बेला कही गई है इस बेला में शिव जी अपने गानों के साथ रहतें है पृथ्वी पर इस बेला में पूर्ण शुद्धता का ख्याल रखना चाहिए ,ब्रम्हचर्य नियमो का पालन करना चाहिए इसके अलावा एकादशी और अमावस कों भी ब्रम्हचर्य व्रत का पालन करना चाहिए । ग्रहण काल पूर्ण रूप से वर्जित है इसमें भी नियमों का पालन करे
गर्भावस्था में माँ कों किस प्रकार रहना चाहिए आइये जानतें हैं शाश्त्र इस बारे में क्या कहता है -
भागवत में वर्णन है कि किस प्रकार उत्तम ,वीर और उर्ध्वगामी संतान प्राप्त कर सकते है
-किसी को भी मन वाणी या क्रिया के द्वारा पीड़ा न पहुचाएं ।
-अकारण किसी से ईर्ष्या न रखे ,किसी से गाली -गलोच न करे ।
-झूठ न बोले ,हमारे शास्त्रों में नाखून काटना भी वर्जित बताया है ।
-किसी अशुभ वस्तु का स्पर्श न करे ।
-नदी या तालाब में घुस कर स्नान न करे ।
-क्रोध न करें ,बुरे लोगों से बात न करें ,जिसे देख कर आप असहज हो जातें हो उससे दूर रहें ।
-रोज स्नान करें ,धुला हुआ वस्त्र पहने ,किसी का पहना हुआ वस्त्र न धारण करें ।
-जूठा ,बासी और मांसयुक्त भोजन न करें ।
-शूद्र का छुआ ,अशुद्ध व्यक्ति का लाया हुआ ,जहां -तहां भोजन न करे ।
-अंजुली से पानी न पियें ।
-जूठे मुख बाहर न निकलें ,संध्या काल में भी बाहर न निकलें (जो माँ बनने वाली हो )।
-संध्या के समय बालों को खुला न रखें और न कंघी करें ।
-संध्या कि बेला शिव जी का है इस समय वो अपने गणों के साथ पृथ्वी भ्रमण करतें है इसलिए इस बेला में शुद्ध होकर श्री हरी का ध्यान करना उत्तम होता है ।
-अमंगल वेश में न रहें ,अपने मांगलिक चिन्हों से युक्त रहे।
-सभी कर्म जो -जो निषिद्ध है उनका त्याग करें ।
-बिना पैर धोये अपवित्र अवस्था में विस्तर पर न जाय ।
-उत्तर या पश्चिम कि तरफ सर करके न सोयें ।
-संध्या काल में कदापि न सोये ।
-सूर्योदय से पहले विस्तर त्याग दे । स्नान के पश्चात् श्री हरी को स्मरण करे ,सूर्य को अर्घ्य जरुर दे ।
-स्वयं भोजन करने से पहले अपने से बड़ो को ,ब्राम्हण ,गाय और याचक को भोजन दे ।
-हमेशा क्रियाशील और प्रसन्नचित रहना गर्भावस्था में आवश्यक है इसका सीधा असर शिशु पर पड़ता है ।
-भोजन में दूध ,दही रोज लेना चाहिए ।
-भोजन ,वस्त्र ,शैया ,स्थान ,संग ,दृश्य ,वातावरण ,मन ,बुद्धि ,शरीर सब कुछ साफ़ ,स्वच्छ और शोभनीय बना कर रखें ।
-घर का वातावरण सुगन्धित और प्रसन्न करने वाला होना चाहिए ।
-नियमित रूप से श्री हरी का दर्शन ,पूजन करें ,उनको उत्तम भोग अर्पित करें ।
-ध्यान रखें कि मेरी कोख में एक तेजपुंज पल रहा है ,इसे मुझे महान बनाना है ।
भागवत में लिखा है अदिति ने इस प्रकार नियम का पालन करके वीर संतान पाया जो इंद्र को मार सका ।
इस नियम में श्री कृष्ण के बाल रूप कि पूजा करे ।
अब जानेगें उत्तम संतान के लिए ,पुत्र प्राप्ती के लिए शाश्त्र ने क्या उपाय बताये हैं -
भागवत में कहा गया है कि -एक वर्ष तक प्रत्येक अमावस्या को श्री हरी की पूजा करें चन्दन ,माला ,अर्घ्य ,नैवेद्द्य ,वस्त्र ,आभूषण ,गंध ,पुष्प ,धूप ,दीप ,पाद्द्य आदि से पूजन करें । खीर कि आहुति इस मन्त्र से दे -ॐ नमो भगवते महापुरुषाय महाविभूति पतये स्वाहा ।
अर्थात महान ऐश्वर्यों के अधिपती भगवान् पुरुषोत्तम को नमस्कार है । घृत मिश्रित खीर से १२बार आहुतियाँ दे। ब्राम्हण को भोजन दे ,माला और चन्दन से पूजन करें ।
पुत्र प्राप्ति के लिए हमारे शास्त्रों में एक बेहद प्रभावशाली मन्त्र बताया गया है ,यह देव गुरु श्री नारद जी का दिया हुआ मन्त्र है । हम अपने पाठकों के लिए यहाँ दे रहे हैं -
मन्त्र है --देवकी सुत्त गोविन्द वासुदेव जगत्पते ,देहि में तनयं कृष्ण त्वामहं शरणम् गतः !
इस मन्त्र को एक लाख जपना चाहिए ।
निश्चय ही कामना पूर्ण होगी ।
मन्त्र को श्री कृष्ण कि बाल मूर्ति के सामने जपना चाहिए ।
पूर्ण श्रद्धा और भक्ती के साथ जपे ईश्वर कि कृपा तो कुछ क्षणों में भी मिल सकती है ।
संध्या काल ,ग्रहण काल ,एकादशी ,अष्टमी ,पूर्णमासी और अमवस्या को विशेष फल मिलता है ।
मन्त्र में देवता का स्वरूप बसता है इसलिए वस्त्र और आसन पवित्र होने चाहिए ।
ग्रहण काल ,एकादशी,पूर्णिमा और अमावस्या को स्त्री संग वर्जित कहा गया है ।
मंत्रो कि रचना हमारे मनीषियों ने कि । मन्त्र केवल शब्द नहीं हैं इसमें देवता बंधे होते हैं । मन्त्र कि शक्ति से ईश्वर कि प्राप्ति हो जाती है । पूर्ण ध्यान पूर्वक मन्त्र को जपना चाहिए । एक मात्रा कि गलती भी मंत्रो के अर्थ को बदल देती है और परिणाम भी बदल जातें हैं ।
मन्त्र कि शक्ति से असाध्य भी साध्य बन जाता है । मन्त्र मन में और सस्वर भी जपा जाता है । सबसे जरुरी बात है ध्यान लगने कि ,ईश्वर से तादात्म्य होने कि । जब साधक कि अन्तश्चेतना जगती है तो वह सामान्य मानव से ऊपर उठ जाता है और मन्त्र अपना प्रभाव देता है ।
आइये अब हम इस पर चर्चा करें कि बच्चों के साथ किस तरह से व्यवहार किया जाना चाहिए -
बच्चे जब जन्म लेते हैं तो वो एक ताजा ,स्वच्छ खिले हुए फूल कि तरह होतें हैं ।बच्चे पूरी तरह से अपने अभिभावक पर निर्भर होतें हैं । बच्चों कि देखभाल बहुत सावधानी और जिम्मेदारी के साथ करनी चाहिए । सफाई और स्वच्छता पर विशेष ध्यान देना चाहिए ।
कुछ माताएं जो सोचतीं हैं कि स्तन पान कराने से उनका शरीर बिगड़ जायगा ,तो आज के डॉक्टर भी यह कहतें हैं कि छः महीने तक शिशु को दुग्ध पान कराना चाहिए । स्तनपान से माताओं को कोई हानि नहीं होती ।
स्तन पान कराने वाली माताएं अपने भोजन में पौष्टिकता का ख्याल जरुर रखे ताकि उनका बच्चा स्वस्थ रहे ।
स्तन पान तब कराये जब आप प्रसन्न अवस्था में हो । शिशु जब तक माँ का दूध पीता हैं तब तक माँ के खान -पान ,विचार का सीधा सम्बन्ध शिशु से होता है ।
इसलिए दुग्ध पान कराने वाली माताएं अपने भोजन और आचरण पर ध्यान दे ।
माँ का दूध शिशु को स्वस्थ रखने के साथ -साथ उसकी रोग निरोधक क्षमता को बढाता है ।
माँ का दूध बच्चे के लिए पूर्ण आहार का काम करता है ।
स्वस्थ माँ का बच्चा भी स्वस्थ और प्रसन्न रहेगा उसका सम्पूर्ण विकास उचित रीति से होगा ।
बच्चे के स्नान और आहार का भी समय रखना चाहिए । जब माँ समय का ध्यान रख कर बच्चे का हर कार्य करेगी तो बच्चा उसी सारिणी में चलेगा ।
जैसे बहुत छोटे एक से दो माह के शिशु को एक -एक धंटे पर आहार दे १० या १५ दिन बाद आप देखेंगे एक घंटे एक बाद आपका शिशु रोने लगेगा कि उसे आहार मिले ।
इसी तरह जैसे -जैसे वह बड़ा हो उसकी चर्या और खान -पान एक नियम के साथ चलाइये ।
आप अपने शिशु के आहार में पौष्टिकता का ख्याल रखिये आप अपने बच्चे को हँसते खेलते बढ़ता हुआ देखेंगे ।
जब बच्चा चलने लगे बोलने लगे आप देखेंगे वह निरंतर सीखने कि प्रक्रिया में लगा रहता है ।
इस काल में अपने घर का वातावरण बच्चे देखते हैं और ग्रहण करते हैं । अब यह पूरी तरह अभिभावक को समझना चाहिए कि अपने घर का माहौल कैसे अच्छे से अच्छा बना कर रखें ।
कुछ बातें जिनका ख्याल रखें -
- बच्चों से कभी झूठ न बोले
- कुछ बड़े होने पर उनको सच और झूठ का फर्क समझाएं ।
- उनको बताएं कि सच बोलना अच्छा है ,झूठ बोलने से मान घटता है ।
- बच्चों के मन में घृणा और ईर्ष्या का बीज न डालें नहीं तो जीवन भर इसका प्रभाव रहेगा ।
- बच्चों के मन में कभी भय का भाव न आने दे उनमे उत्साह भरे ।
- घर में बच्चों के सामने लड़ाई झगडा गाली आदि नहीं होना चाहिए ।
- बच्चो को सुबह स्नान आदि के बाद कुछ मिनट पूजा ,ध्यान अथवा ईश्वर से सम्बंधित कोई कार्य जैसे फूल चुनना पूजा के स्थान कि सफाई करने के लिए कहना ।
- बच्चे सब कुछ जानने कि इक्षा रखतें हैं ,जिज्ञासु होतें हैं उनकी जिज्ञासा को कुशलता के साथ शांत करना चाहिए ।
- किशोर किशोरिया बड़े कोमल स्वभाव के होतें हैं उनको समझ कर उनके साथ दोस्तों कि तरह वर्ताव करें ।
- छोटे बच्चे जो नहीं समझते कि गाली क्या है अपशब्द क्या है उनके साथ कैसे बच्चे हैं इसका ध्यान भी दे ।
- आप जिस तरह बोलेंगे आपका बच्चा उसी तरह बोलेगा उतनी ही मीठी जुबान बोलेगा जितनी आप ।
- बच्चों के आहार में पौष्टिकता का ख्याल रखें तभी उसका दिमाग तेज रहेगा और वह स्वस्थ रहेगा ।
- बच्चे कि जिज्ञासा को कुशलता के साथ शांत करना चाहिए । बच्चे बहुत समझदार होतें हैं इसलिए सही ढंग से उनके साथ ब्यवहार करना चाहिए ।
- कच्ची उम्र के बच्चों के सामने किसी को भी बुरा -भला न कहें पर उसे अच्छे और बुरे कि पहचान जरुर कराएँ । जब वह समझदार होगा तो फर्क कर लेगा ।
- कई घरों में होता है माँ कहती है बच्चे से कि आने दो तुम्हारे बाप को बताती हूँ । और माँ बाप के आने पर बच्चे कि शिकायत करती है फिर पिता बच्चे को अपनी समझ के अनुसार दंड देता है माँ समझती है बच्चा सुधर गया लेकिन मनोविज्ञान कहता है कि यह गलत है ऐसा करने से बच्चा अपनी माँ के लिए कुंठा पाल लेता या बाप को लेकर उसके मन में अच्छे विचार नहीं रहते ।
- किसी के सामने बच्चे कि बुराई न करें इससे उसके मन पर बुरा प्रभाव पड़ता है और वह जिद्दी तथा बागी हो जाता है ।
- किसी के सामने उसकी तारीफ़ करें उसके अच्छे काम को प्रोत्साहित करें वह और उत्साहित होगा ।
माँ को अपने बच्चे कि किसी दुसरे से तुलना नहीं करनी चाहिए कि वो बच्चा अच्छा है ऐसे में बच्चे में हीन भावना आ जाती है ।- बच्चे को कभी भी अनाप -शनाप पैसे नहीं देने चाहिए । बच्चे कि संगति कैसी है इसका ध्यान रखें ।
- अभिभावक रोज कुछ समय अपने बच्चे के साथ बिताएं । उसको अपना काम खुद करने दे ।
- बाल मन बड़ा कोमल होता है इसको आप सुन्दर बना सकतें हैं मन चाहा आकार दे सकतें हैं ।
- बच्चे का मित्र बन कर रहें ।
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१७ /०१/२०१०
Saturday 12 December 2009
घड़ी की यात्रा
मैं एक घड़ी हूँ । कलकत्ता की एक दूकान में १९७२ में अपनी सखियों के साथ बैठी मुस्कुरा रही थी । मेरा रंग सुनहरा है । मैं एक दम सोने जैसी दिख रही थी । एक दिन एक १८ वर्षीय लड़की दूकान पर आई उसे मैं भा गयी ,उसने मुझे ले लिया । उसने मुझे अपनी शादी में पहना मैं भी उस लड़की के साथ उसकी ससुराल आ गई । वह अपनी सुंदर कलाई पर जब मुझे पहनती तो वह बहुत खुश होती मेरे रूप पर । मैं उस घर में सबको भाति थी उस समय पूरे आस पास के लोगों के पास मुझसे सुंदर कोई नही था । उस घर की एक लड़की मुझे लेना चाहती थी ,प़र मेरी मालकिन मुझे बहुत प्रेम करतीं थी । उसने जिद की -मुझे भी ऐसी घड़ी चाहिए ।
जिसके साथ मैं आई आज भी वह मुझसे प्रेम करतीं हैं मैं भी उनका साथ निभा रही हूँ । इस लम्बी यात्रा में कई बार मैं महीनों ऐसे ही पड़ी रहती थी । प़र जब कभी मेरी मालकिन मुझे चाभी देती है तो मैं अवश्य उनको समय बताती हूँ ।
हमारी मालकिन के पुत्र ने उन्हें एक और घड़ी लाकर दी है वो मुझसे बहुत सुंदर है । मैं अब थक जाती हूँ मेरी पालिश भी धुंधली हो गई है । लेकिन मेरी मालकिन मेरी सुध हफ्ते में एक बार जरुर लेतीं है । वे मुझे अपने कमरे में सामने आलमारी प़र ही रखतीं हैं । मैं उनसे रोज मिलती हूँ और वे भी मुझे देखतीं हैं । अपने बेटे की लायी हुई घड़ी को वे बड़े प्यार से धूल से बचाकर रखतीं हैं ।
प़र मुझे भी नही भूलीं जिस दिन मुझे चाभी मिल जाती है उस दिन मैं उनको १० से १२ घंटे चलकर दिखातीं हूँ । मेरी चाहत है वे मुझे अपने पास ही रहने दे । मैं उनके समय की साक्षी जो हूँ । मैं आपको अपना नाम बता दूँ -
मैं हूँ --"एच एम् टी नूतन "! १२/१२/०९
जिसके साथ मैं आई आज भी वह मुझसे प्रेम करतीं हैं मैं भी उनका साथ निभा रही हूँ । इस लम्बी यात्रा में कई बार मैं महीनों ऐसे ही पड़ी रहती थी । प़र जब कभी मेरी मालकिन मुझे चाभी देती है तो मैं अवश्य उनको समय बताती हूँ ।
हमारी मालकिन के पुत्र ने उन्हें एक और घड़ी लाकर दी है वो मुझसे बहुत सुंदर है । मैं अब थक जाती हूँ मेरी पालिश भी धुंधली हो गई है । लेकिन मेरी मालकिन मेरी सुध हफ्ते में एक बार जरुर लेतीं है । वे मुझे अपने कमरे में सामने आलमारी प़र ही रखतीं हैं । मैं उनसे रोज मिलती हूँ और वे भी मुझे देखतीं हैं । अपने बेटे की लायी हुई घड़ी को वे बड़े प्यार से धूल से बचाकर रखतीं हैं ।
प़र मुझे भी नही भूलीं जिस दिन मुझे चाभी मिल जाती है उस दिन मैं उनको १० से १२ घंटे चलकर दिखातीं हूँ । मेरी चाहत है वे मुझे अपने पास ही रहने दे । मैं उनके समय की साक्षी जो हूँ । मैं आपको अपना नाम बता दूँ -
मैं हूँ --"एच एम् टी नूतन "! १२/१२/०९
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१२/१२/२००९
Thursday 22 October 2009
Gita
Bhagwaan ki vaanimay moorti hai bhagavad gita।Iskaa addhyayn hamari mrityu ko sawaarta hai
श्रीगीता कृष्ण की वांग्मय मूर्ति है ! भगवान् वाणी के रूप में गीता के श्लोकों में बसते हैं । भगवन ने महाभारत युद्ध से पहले जब अर्जुन को मोह व्याप्त हो गया था तब गीता का उपदेश दिया था । यह उपदेश कुरुक्षेत्र के मैदान में किया था भगवान् ने । भागवत में आता है श्री कृष्ण ने जब गीता उपदेश किया तो इसे अर्जुन के सिवा और कोई नही सुन सका । दोनों और की सेनाये सम्मोहित सी खड़ी रही और अर्जुन ने गीता का उपदेश प्रभु से सुना और तमाम तरह की शंकाओं का समाधान भगवान से पाया अर्जुन ने भगवान् का विराट रूप भी देखा । अर्जुन डर गए बोले हे वासुदेव मैं आपको पहचान नही पाया मुझे क्षमा कर दीजिये मैंने आपको अपना सखा कहा और आपको साधारण मनुष्य समझता रहा ।
श्री कृष्ण ने कहा जब युद्ध भूमि में आगये हैं तो शत्रु को पराजित करना महत्वपूर्ण है । अर्जुन का मोह भंग हुआ और'' देवदत्त ''जो उनके शंख का नाम था उससे चुनौती भरा निनाद किया ।
पांडवो ने वर्षों दुर्योधन का अत्याचार सहा । शान्ति के लिए बहुत प्रयास भी किया १३ वर्ष तक बनवास किया ताकि युद्ध न हो । त्याग की अन्तिम सीमा तक गए पर युद्ध न टला । पांडवो ने अपनी रक्षा ,न्याय और धर्म की रक्षा के लिए युद्ध किया । दुर्योधन के अत्याचारों के प्रतिवाद में यह धर्मयुद्ध हुआ ।
कुरुक्षेत्र में कौरव और पांडव की सेनायें आमने सामने खड़ी हैं । श्री कृष्ण अर्जुन के सारथी है ।
अर्जुन ने कहा -केशव ! रथ को एक बार दोनों सेनाओं के मध्य ले चलिए । श्री कृष्ण ने मुस्कुराते हुए रथ को आगे बढ़ा दिया ।
अर्जुन ने देखा -पितामह ,आचार्य द्रोण और अन्य बंधू -बांधव युद्ध के मैदान में हैं । अर्जुन का मन शिथिल हो गया । कैसे करूँगा में इनसे युद्ध । मैं इनका वध नही कर सकता । नही चाहिए मुझे रक्त में डूबा हुआ राज्य । इससे अच्छा है बन में रहना ,भिक्षा पर जीवन निर्वाह कर लेना ।
मैं युद्घ नही करूँगा ।
भगवान् बोले -अर्जुन तुम क्या समझते थे की ये युद्ध नही करेंगे ? और इस युद्ध में दोनों ओर के लोग मरेंगे । जो मरेंगे इस युद्ध में उनको तुम नही मार रहे हो यह भावी है । तुम नही मारोगे तब भी ये मरेंगे ।
अर्जुन अपने तपोबल से समाधी की अवस्था तक पहुँच गए थे ,इसके वावजूद मोह मुक्त नही हो पाये । युद्ध क्षेत्र में आते ही उनका मन संसार के मोह में बाँध गया । अर्जुन अपने पितामह ,गुरु ,भाई और पुत्र मोह में बंध गए ।
दूसरी और दुर्योधन ,वह केवल युद्ध चाहता था उसे पूरा भरोसा था की वह युद्ध में जीत हासिल कर लेगा । वह अहंकार में चूर कर्ण ,पितामह और द्रोण जैसे श्रेष्ठ योद्धाओ के रहते अपनी जीत निश्चित माने था । उसे सबसे प्रिय था हस्तिना पुर का राज वैभव । उस राज्य के लिए वह कुछ भी करने को तैयार था ,किसी को भी मरवा सकता था । उसे अपने सम्बन्धियों का मोह नही था ।
अर्जुन ने युद्ध के भयावह परिणाम की कल्पना करके युद्ध को न करने का निर्णय लिया ।
केशव मैं युद्ध नही करूँगा । अपने गुरुओं को मारने का पाप मैं नही करूँगा । मैं यह महाविनाश नही कर सकता ।
श्री कृष्ण ने कहा -अर्जुन क्या तुम बाण नही चलाओगे तो यह महाविनाश रुक जायगा ? क्या तब लोग नही मरेंगे ? क्या दुर्योधन युद्ध नही करेगा ?
हे अर्जुन ! आतताई अपने पाप से मरता है । किसी के मारने से नही । देहधारी की मृत्यु उसके शरीर में ही रहती है ।
जो मरता है वह शरीर है । आत्मा का संघटन नही होता और न ही विघटन होता है । आत्मा पञ्च भूतों से परे है इसलिए उसका विघटन संभव नही है । आत्मा अमर है । शरीर एक पुष्प के समान खिलता है और मुरझा जाता है । अगर कोई नही भी तोड़ता तो यह टहनी से गिर जाता है ।
अर्जुन जिसने जन्म लिया है उसका मरना भी तय है जो मरता है उसका पुनर्जन्म निश्चित है । आत्मा पुराना शरीर त्याग कर उसी प्रकार नया शरीर धारण करती है जिस प्रकार शरीर पुराना वस्त्र त्याग कर नया वस्त्र धारण करता है । असत की सत्ता नही होती ।
अर्जुन बोले -मैं क्या करूँ केशव ? यह शरीर वस्त्र ही सही किंतु जिनको मैं जीवित देखना चाहता हूँ उनका वध मैं कैसे करूँ । मैं युद्ध नही करूँगा केशव ।
श्री कृष्ण ने कहा - यह युद्ध तुम्हारी इक्षा से नही रुकेगा । तुम कर्म को करो प्रकृति के नियम के अनुसार फल प्राप्त होगा । प्रकृति अपने नियम किसी व्यक्ति के लिए नही बनाती वह तो समष्टि के लिए है ।
अर्जुन -मैं क्या करूँ केशव ?
कृष्णश्री-स्वधर्म ! तुम अपना स्वधर्म करो । अन्याय और अधर्म का विरोध करो । अर्जुन तुम क्षत्रिय हो भिक्षा मांग कर जीवन यापन करना तुम्हारा स्वधर्म नही है । और अपने स्वधर्म के विरूद्व तुम नही कर सकोगे । तुम्हे शासन करना होगा ,समाज को अनुशासन में लाना होगा । दुष्टों का दलन करना होगा यही तुम्हारा कर्म और धर्म है । तुम युद्ध के मैदान से अपने शत्रुओं को पीठ दिखा कर नही भाग सकते । तुम अगर युद्ध नही करोगे तो वे तुमसे युद्ध करेंगे अतः तुम युद्घ से नही बच सकते ।
अर्जुन तुम अपने मोह के कारण कह रहे हो की -युद्घ करने से श्रेष्ठ है भीख माँगना । क्या तुम्हारा क्षत्रिय तेज यह सहन कर पायेगा । क्या तुम अपने प्रकृति के विरूद्व जा पाओगे । धनञ्जय यह अधर्म है ।
अर्जुन यह शरीर प्रकृति का यंत्र है । मधुमक्खी पुष्पों के रस से मधु बनाती है ,गाय हरे घास को दूध में परिणत कर देती है ,मनुष्य अपने भोजन से रक्त ,मल और मांस बनाता है । क्या यह सब करना उसके अपने वश में है ? नही ,यह काम प्रकृति करती है । इसलिए कहता हूँ ,स्वधर्म पर टिक कर निष्काम कर्म करो अपने स्वरूप को पहचानो !आत्मस्थ हो ।
अर्जुन आज श्री कृष्ण का दिव्य रूप देख रहा था । ये वे कृष्ण नही थे जो उनका रथ हांक रहे थे । अर्जुन हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया बोला -केशव मैंने सदा आपका मार्ग दर्शन पाया है । प्रकृति मुझसे क्या करवाना चाहती है मैं नही जानता ,किंतु मैं अपने पितामह और गुरु पर बाण कैसे चलाऊ ।
श्री कृष्ण -मैंने राजसूय यग्य में जरा संध का वध अन्याय और अत्याचार को समाप्त करने के लिए किया था । मैं इस धरती पर धर्म की स्थापना के लिए आया हूँ । तुम इस युद्ध से पीछे नही हट सकते हो । अधर्म कोई भी करे वह सजा का भागी है ।
अर्जुन बोले -मेरे पितामह अधर्मी नही हैं । दुर्योधन अधर्मी है ।
श्री कृष्ण -तो तुम दुर्योधन का वध करो ।
अर्जुन -मार्ग में पितामह खड़े है ।
श्री कृष्ण -पितामह नही भीष्म ! भीष्म का वध किए बिना यदि दुर्योधन नही मारा जा सकता तो पहले किसे दण्डित होना चाहिए ?
श्री कृष्ण मुस्कुराए, बोले जीवन का सत्य यही है धनंजय । जब अधर्म के विरूद्व शस्त्र उठाओगे तो सबसे पहले तुम्हारे परिजन ही तुम्हारा हाथ पकडेंगे ।
अर्जुन तुम मनुष्य की दृष्टि से देख रहे हो इसलिए मोह में पड़े हो । तुम सम्पूर्ण की दृष्टि से देखो ,ईश्वर की दृष्टि से देखो । ईश्वर से जो सम्बन्ध तुम्हारा है वही सम्बन्ध पितामह का भी है । तुम दोनों ईश्वर के हो । प्रकृति ईश्वर की शक्ति है । प्रकृति भेद या व्यक्ति सम्बन्ध नही रखती ।
अर्जुन !मोह के कारण तुम्हें अपना धर्म नही दिख रहा है । तुम्हारी दृष्टि में भेद आ गया है । आसक्ति किसी को सत्य के दर्शन नही करने देती । तुम्हे स्वधर्म के लिए आसक्ति को त्यागना होगा ।
अर्जुन बोले -मैं आपका शिष्य हूँ केशव । किंतु मैं पितामह का पौत्र भी हूँ । उनके प्रति भी मेरा धर्म है ।
अर्जुन ने देखा श्री कृष्ण के चेहरे का तेज सूर्य से अधिक था जो उसके लिए असह्य होता जा रहा था । आकाश के सूर्य से अधिक प्रखर था श्री कृष्ण का तेज ।
कृष्ण की वाणी जैसे मेघो की गर्जना सी लग रही थी बोले -अर्जुन !ऐसा कोई काल नही था जब तुम नही थे या मैं नही था । तुम मोह के कारण अपना स्वरूप भूल गए हो ।
श्री कृष्ण का स्वरूप बड़ा विशाल लग रहा था । उनका अद्भुत रूप देख कर अर्जुन विस्मित था । वह अपलक भगवान् को निहारता ही रहा ,अपनी सुध भूल गया ।
भगवान् बोले -अर्जुन तुम्हे विस्मृत हो गया है पर मुझे याद है । इस शरीर में मैं ही आत्मा के रूप में स्थित हूँ । समस्त भोग भोगते हुए भी मैं मुक्त हूँ । मैं यह शरीर नही हूँ ।
अर्जुन डरते हुए पूछा -मैं कौन हूँ केशव
कृष्ण बोले -तुम भी वही हो जो मैं हूँ । तुम पर मोह का आवरण है तुम अपना आत्मभाव भूल गए हो इसीलिए तुम अपना स्वरूप नही देख पा रहे हो । तुम या मैं नही ,यह युद्ध प्रकृति करवा रही है । प्रकृति ही प्रकृति के विरुद्ध लड़ रही है । कोई किसी को नही मार रहा है । जो मार रहा है वह भी मैं हूँ जो मर रहा है वह भी मैं ही हूँ आत्मवान अर्जुन अपने धर्म को न भूलो
"यहाँ श्री कृष्ण ने अर्जुन को आत्मवान कहा है जिसका भाव यह है की -अर्जुन अपने क्षत्रिय स्वभाव ,अपने धर्म ,अपने गुण को न छोडो नही तो निरात्मा कहे जाओगे "अर्जुन मोह में पड़ कर अपने व्यक्तित्व को नकार रहा था युद्ध के क्षेत्र को छोड़ने को तैयार था ।
अर्जुन व्याकुल स्वर में बोला -केशव मेरे अपने युद्ध के मुहाने पर खड़े हैं । मैं यहाँ आपके साथ हूँ । मेरे शत्रु क्या सोचेंगे ।
मैं सारे धर्म -क्षत्रिय धर्म ,भाई का धर्म ,शिष्य का धर्म ,पिता ,पौत्र का धर्म सब एक साथ कैसे निभाऊं
भगवान् का स्वर असाधारण हो उठा ,जैसे लगा ब्रम्हादेश है -"अर्जुन तू सब धर्मों को त्याग कर केवल मेरी शरण में आ जा मैं तुझे समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा ।
अर्जुन चेतना के दिव्य सागर में तैर रहा था -क्या वह मात्र दृष्टा है ,करता कोई और है ,यह क्या धटित हो रहा है .........अर्जुन को लगा जैसे उसके चारों ओर कृष्ण ही कृष्ण हैं कृष्ण जी का अद्भुत रूप देख कर नर श्रेष्ठ अर्जुन डर गया ,कापते हुए पूछा -आप कौन हैं ।
श्री कृष्ण हँसे ,लगा जैसे बिजली चमकी हो आकाश इन्द्रधनुषी हो गया बोले -'मैं ही हूँ ,मैं ही महाकाल हूँ ,सब मुझसे ही प्रकट हुआ है और मुझमे ही विलीन हो जायगा '।
अर्जुन ने देखा उसके चारों तरफ का संसार विचित्र सा हो गया है ,कृष्ण मंद -मंद मुस्कुरा रहे थे । अर्जुन का अस्तित्व उन में समाता जा रहा था ,श्री कृष्ण एक प्रकाशपुंज में परिणत हो गए थे ,जैसे सहस्त्रों सूर्य एक साथ आकाश पर उदित हो गए थे । सूर्य ,वायु ,जल ,वनस्पति ,जीवजन्तु ,वृक्ष तथा पूरा ब्रम्हांड उनमे ही समाहित है । उनके सहस्त्रों मुख प्रकट हो गए थे । बड़ी बड़ी सेनाये उनमे समाती जा रही थी एक तरफ़ लोग लड़ मर रहे थे दूसरी तरफ़ लोग जन्म ले रहे थे ,पृथ्वी का पूरा श्रृष्टि चक्र भगवान् के मुख में था उसमे अर्जुन ने अपने सगे -सम्बन्धियों को भी देखा भीष्म ,द्रोण ,दुर्योधन सबको देखा । अर्जुन ने अपने नेत्र बंद कर लिए ,जब आँखे खोली तो सब यथा वत पाया पाया भगवान् ने अपनी माया समेट ली ।
रथ पर बैठे कृष्ण मुस्कुरा रहे थे ।
यह क्या था केशव -अर्जुन ने पूछा !
श्रृष्टि का सत्य -श्री कृष्ण ने कहा !
अब अर्जुन युद्ध के लिए प्रस्तुत था । वह अपना क्षत्रिय धर्म और कर्तव्य समझ गए । अर्जुन आत्मवान हो उठा ,गांडीव धारण किया । आत्मस्थ अर्जुन को दिव्य अनुभूति हुई । श्री कृष्ण चले रथ को लेकर रणभूमि में ।
" पार्थ !आकस्मात प्राप्त स्वर्ग के खुले हुए द्वार की भांति ऐसा युद्ध भाग्यशाली क्षत्रिय को ही प्राप्त होता है ।"
जब चारों ओर घोर अँधेरा हो और दूर -दूर तक कोई आशा की किरण न दिखाई पड़ रही हो गहरा विषाद छाया हो तो विषाद को आह्लाद में बदलने का काम करती है गीता ।
गीता की दिव्यता और अलौकिकता संसार में कहीं नही है । आशा का जमागाता सूर्य है गीता । विषाद को योग बनाती है गीता । जब अर्जुन विषाद में डूब कर अपने स्वधर्म से विमुख होने जा रहा था तब गीता ने उसे ज्ञान दिया ।
गीता कहती है मृत्यु तो शरीर की होती है ,जीव की नही । जब शरीर मरता है तो जीव निकल जाता है ,जीव भटकता रहता है जब तक वह पुनः नया शरीर नही पा जाता । शरीर रुपी वस्त्र पहन कर जीव फ़िर जन्म लेता है। इस प्रकार इस जीव के न जाने कितने जन्म हो चुके हैं और कितने सम्बन्धी बन चुके है । शरीर रूपी वस्त्र पहन कर यह जीव फ़िर सुख -दुःख की चिंता में पड़ जाता है । इस शरीर में रहकर ही सुख ,आह्लाद ,मोक्ष और खशी की राह दिखाती है गीता ।
शरीर की यात्रा तो बिना कुछ किए भी चलती है और जन्म से मरण तक की यात्रा करती है पर जीव की यात्रा लम्बी चलती यह और इसके रिश्ते भी बदलते रहते हैं । संसार के रिश्ते नाते निभाने चाहिए ,हंस कर सब करना चाहिए पर एक बात हम भूल जातें हैं की इस जीव का सच्चा रिश्ता तो ईश्वर से है ।
जीवन के सारे रिश्ते उन्ही से हैं हमारे भीतर जो बसता है हम उससे ही कितनी दूर रहते हैं । हमारे भीतर जो प्राण है वो कौन है ?हमारी आंखों में जो रौशनी है वो कौन है ? हमारे कानो में जो श्रवण हैं वो कौन है ?उसे पहचानो । इस जीवन यात्रा का सच्चा साथी वही है -ईश्वर
भगवान् कहतें है -
-ज्ञान श्रेष्ठ है पाप के सागर से ज्ञान की नौका से ही पार पाया जा सकता है ।
-कर्म को तपस्या बना लो यही कर्म योग है ,ज्ञान के द्वारा अच्छे और बुरे की पहचान करो और कर्म की उच्चा अवस्था को पा लो । कर्म शुभ फल देगा ।
-जो शक्तियाँ समाज की शत्रु हैं उनको ख़तम करना कल्याण का काम है ।
-हे पार्थ निष्काम कर्म स्वयं को दूषित नही करता ।
-अपने आस -पास के सुगंध और दुर्गन्ध को लेने के लिए इन्द्रियां विवश होतीं हैं इसलिए अपनी चेतना को जागृत करो । राग ,ध्वनी,और कोलाहल को कान जरुर सुनेंगे ,आँखे क्या देंखे ,मुख क्या कहे अपने ज्ञान के द्वारा निश्चित करो ।
-हम समाज में रहते हैं इसलिए हमारे कर्म अनुकरणीय होने चाहिए ।
-काम ,क्रोध,लोभ,मोह,वासना ये सब पाप कर्म करवटें हैं इसलिए इनसे दूर रहो ।
-निष्काम कर्म के मार्ग पर चल कर भी जीवन जिया जा सकता है ,यह हमें श्री कृष्ण जी ने गीता में बताया है ।
-शरीर का सत्य है मृत्यु इसलिए इसका शोक नही करना चाहिए ,अपने धर्म का पालन करना चाहिए ।
"ॐ नमो नारायणा "
गीता हमारा रक्षा कवच है -
मोह रात्री ,घोर कष्ट में ,दुःख में ,निराशा में ,हताशा में ,गहन अन्धकार में जब आस -पास कोई रौशनी न दिख रही हो ऐसे वक्त में यह ईश्वरीय ज्ञान हमें आशा और उत्साह देता है । गीता हमें शुद्द्घ ज्ञान से अवगत कराती है ,पुनर्जीवन देती है ।
विद्वानों कि बुद्धि ,बलवानो का बल ,तेजवान व्यक्तियों का तेज यह सब ईश्वर कि कृपा से होता है । समस्त चराचर में ईश्वर ही बीज रूप में व्याप्त है । आपने देखा होगा कितने पेड़ -पौधे अन्यास ही उग जातें हैं जानतें है कैसे ?कोई पक्षी अशुचि पूर्ण तरीके से कोई बीज गिरा देता है और एक दिन वह विशाल वृक्ष का रूप ले लेता है । कौन कहता है ,किसकी व्यवस्था है यह ?
कलकत्ता के "बोटानिकल गार्डेन "में एक वट वृक्ष है बहुत विशाल है वह उसके नीचे लाखों लोग छाया पातें हैं मीलों तक फैली हैं इस वृक्ष कि भुजाएं इसका वर्णन नहीं है कि किसने लगाया हाँ अब उसकी देखभाल कि जाती है । कभी किसी पक्षी ने अशुचि पूर्ण तरीके से बीज गिरा दिया और वृक्ष बन गया ।
हमारा निवास स्थान जहा हैं वहां भी तीन पीपल के विशाल वृक्ष थे पर उसे लगाया किसी ने नहीं था । वह इतने जैयद (बड़े )थे कि उनसे पार होकर सूर्य कि किरने हमारे घर तक नहीं आ पाती थी । बाद में बहुत कोशिश करके इनको कटवाया ।यही है भगवान् का बीज रूप । आजकल "एन डी टीवी इमैजिन "पर एक प्रोग्राम आता है -राज पिछले जन्म का । उसमे किसी तरीके से आदमी को उसके पिछले जन्म में ले जातें हैं । एक डाक्टर हैं जो यह करतीं हैं ,६० मिनट के बाद आदमी अपने पिछले जन्म को देखता है ,वह बेहोशी कि हालत में दीखता है और अपने पिछले जन्म को देखता है ,उसमे दुःख -सुख और अपने कर्मो को देखकर वह अपने वर्तमान को जोड़ता है । जब वह जागता है तो सब सच मानता है ।
यही बात हजारों साल पहले ही श्री कृष्ण जी ने गीता के माध्यम से हम मानुषों को बताई कि कर्म का फल नहीं त्याग सकते । यह भोगना ही पड़ेगा फल तो मिलेगा ही बस कर्म का ध्यान रखो । महर्षि भृगु ने भी पिछले जन्म कि विवेचना के आधार पर आज के दुःख सुख को जोड़ा है । महर्षि भृगु ने कुल १० करोड़ कुण्डलिया बनाई हैं । उनकी संहिता नालंदा में रखी थी । मुग़ल काल में मुहम्मद गोरी ने जबआक्रमण किया तो नालंदा का पुस्तकालय जला दिया गया था तो उसमे "भृगु संहिता "का
एक बड़ा भाग जल गया । आज हमारे पास बची हुई लिपि ही है । भृगु संहिता कुल ११ खंड में थी । भृगु के पुत्र "शुक्राचार्य "थे कहतें हैं उनके पास मृत संजीवनी विद्या थी जिनके कारण दैत्य इतने बलवान हो गए थे । शुक्राचार्य दैत्यों के गुरु थे । भृगु संहिता के अनुसार भी -जिनके पास कोई ऐसा दुःख है जो नहीं समझ पाते कि क्यों है उसका कारण उनका पूर्व कर्म होता ।
तो बात हो रही है गीता-अमृत कि । अर्जुन जब मोह निशा में भटक कर अपने धर्म को ,कर्तव्य को भूल रहा था तब भगवान् ने उसे गीता का ज्ञान देकर उसके क्षत्रिय धर्म को जगाया था । अर्जुन विजयी हुआ धर्मराज्य की स्थापना हुई ।
श्रीगीता कृष्ण की वांग्मय मूर्ति है ! भगवान् वाणी के रूप में गीता के श्लोकों में बसते हैं । भगवन ने महाभारत युद्ध से पहले जब अर्जुन को मोह व्याप्त हो गया था तब गीता का उपदेश दिया था । यह उपदेश कुरुक्षेत्र के मैदान में किया था भगवान् ने । भागवत में आता है श्री कृष्ण ने जब गीता उपदेश किया तो इसे अर्जुन के सिवा और कोई नही सुन सका । दोनों और की सेनाये सम्मोहित सी खड़ी रही और अर्जुन ने गीता का उपदेश प्रभु से सुना और तमाम तरह की शंकाओं का समाधान भगवान से पाया अर्जुन ने भगवान् का विराट रूप भी देखा । अर्जुन डर गए बोले हे वासुदेव मैं आपको पहचान नही पाया मुझे क्षमा कर दीजिये मैंने आपको अपना सखा कहा और आपको साधारण मनुष्य समझता रहा ।
श्री कृष्ण ने कहा जब युद्ध भूमि में आगये हैं तो शत्रु को पराजित करना महत्वपूर्ण है । अर्जुन का मोह भंग हुआ और'' देवदत्त ''जो उनके शंख का नाम था उससे चुनौती भरा निनाद किया ।
पांडवो ने वर्षों दुर्योधन का अत्याचार सहा । शान्ति के लिए बहुत प्रयास भी किया १३ वर्ष तक बनवास किया ताकि युद्ध न हो । त्याग की अन्तिम सीमा तक गए पर युद्ध न टला । पांडवो ने अपनी रक्षा ,न्याय और धर्म की रक्षा के लिए युद्ध किया । दुर्योधन के अत्याचारों के प्रतिवाद में यह धर्मयुद्ध हुआ ।
कुरुक्षेत्र में कौरव और पांडव की सेनायें आमने सामने खड़ी हैं । श्री कृष्ण अर्जुन के सारथी है ।
अर्जुन ने कहा -केशव ! रथ को एक बार दोनों सेनाओं के मध्य ले चलिए । श्री कृष्ण ने मुस्कुराते हुए रथ को आगे बढ़ा दिया ।
अर्जुन ने देखा -पितामह ,आचार्य द्रोण और अन्य बंधू -बांधव युद्ध के मैदान में हैं । अर्जुन का मन शिथिल हो गया । कैसे करूँगा में इनसे युद्ध । मैं इनका वध नही कर सकता । नही चाहिए मुझे रक्त में डूबा हुआ राज्य । इससे अच्छा है बन में रहना ,भिक्षा पर जीवन निर्वाह कर लेना ।
मैं युद्घ नही करूँगा ।
भगवान् बोले -अर्जुन तुम क्या समझते थे की ये युद्ध नही करेंगे ? और इस युद्ध में दोनों ओर के लोग मरेंगे । जो मरेंगे इस युद्ध में उनको तुम नही मार रहे हो यह भावी है । तुम नही मारोगे तब भी ये मरेंगे ।
अर्जुन अपने तपोबल से समाधी की अवस्था तक पहुँच गए थे ,इसके वावजूद मोह मुक्त नही हो पाये । युद्ध क्षेत्र में आते ही उनका मन संसार के मोह में बाँध गया । अर्जुन अपने पितामह ,गुरु ,भाई और पुत्र मोह में बंध गए ।
दूसरी और दुर्योधन ,वह केवल युद्ध चाहता था उसे पूरा भरोसा था की वह युद्ध में जीत हासिल कर लेगा । वह अहंकार में चूर कर्ण ,पितामह और द्रोण जैसे श्रेष्ठ योद्धाओ के रहते अपनी जीत निश्चित माने था । उसे सबसे प्रिय था हस्तिना पुर का राज वैभव । उस राज्य के लिए वह कुछ भी करने को तैयार था ,किसी को भी मरवा सकता था । उसे अपने सम्बन्धियों का मोह नही था ।
अर्जुन ने युद्ध के भयावह परिणाम की कल्पना करके युद्ध को न करने का निर्णय लिया ।
केशव मैं युद्ध नही करूँगा । अपने गुरुओं को मारने का पाप मैं नही करूँगा । मैं यह महाविनाश नही कर सकता ।
श्री कृष्ण ने कहा -अर्जुन क्या तुम बाण नही चलाओगे तो यह महाविनाश रुक जायगा ? क्या तब लोग नही मरेंगे ? क्या दुर्योधन युद्ध नही करेगा ?
हे अर्जुन ! आतताई अपने पाप से मरता है । किसी के मारने से नही । देहधारी की मृत्यु उसके शरीर में ही रहती है ।
जो मरता है वह शरीर है । आत्मा का संघटन नही होता और न ही विघटन होता है । आत्मा पञ्च भूतों से परे है इसलिए उसका विघटन संभव नही है । आत्मा अमर है । शरीर एक पुष्प के समान खिलता है और मुरझा जाता है । अगर कोई नही भी तोड़ता तो यह टहनी से गिर जाता है ।
अर्जुन जिसने जन्म लिया है उसका मरना भी तय है जो मरता है उसका पुनर्जन्म निश्चित है । आत्मा पुराना शरीर त्याग कर उसी प्रकार नया शरीर धारण करती है जिस प्रकार शरीर पुराना वस्त्र त्याग कर नया वस्त्र धारण करता है । असत की सत्ता नही होती ।
अर्जुन बोले -मैं क्या करूँ केशव ? यह शरीर वस्त्र ही सही किंतु जिनको मैं जीवित देखना चाहता हूँ उनका वध मैं कैसे करूँ । मैं युद्ध नही करूँगा केशव ।
श्री कृष्ण ने कहा - यह युद्ध तुम्हारी इक्षा से नही रुकेगा । तुम कर्म को करो प्रकृति के नियम के अनुसार फल प्राप्त होगा । प्रकृति अपने नियम किसी व्यक्ति के लिए नही बनाती वह तो समष्टि के लिए है ।
अर्जुन -मैं क्या करूँ केशव ?
कृष्णश्री-स्वधर्म ! तुम अपना स्वधर्म करो । अन्याय और अधर्म का विरोध करो । अर्जुन तुम क्षत्रिय हो भिक्षा मांग कर जीवन यापन करना तुम्हारा स्वधर्म नही है । और अपने स्वधर्म के विरूद्व तुम नही कर सकोगे । तुम्हे शासन करना होगा ,समाज को अनुशासन में लाना होगा । दुष्टों का दलन करना होगा यही तुम्हारा कर्म और धर्म है । तुम युद्ध के मैदान से अपने शत्रुओं को पीठ दिखा कर नही भाग सकते । तुम अगर युद्ध नही करोगे तो वे तुमसे युद्ध करेंगे अतः तुम युद्घ से नही बच सकते ।
अर्जुन तुम अपने मोह के कारण कह रहे हो की -युद्घ करने से श्रेष्ठ है भीख माँगना । क्या तुम्हारा क्षत्रिय तेज यह सहन कर पायेगा । क्या तुम अपने प्रकृति के विरूद्व जा पाओगे । धनञ्जय यह अधर्म है ।
अर्जुन यह शरीर प्रकृति का यंत्र है । मधुमक्खी पुष्पों के रस से मधु बनाती है ,गाय हरे घास को दूध में परिणत कर देती है ,मनुष्य अपने भोजन से रक्त ,मल और मांस बनाता है । क्या यह सब करना उसके अपने वश में है ? नही ,यह काम प्रकृति करती है । इसलिए कहता हूँ ,स्वधर्म पर टिक कर निष्काम कर्म करो अपने स्वरूप को पहचानो !आत्मस्थ हो ।
अर्जुन आज श्री कृष्ण का दिव्य रूप देख रहा था । ये वे कृष्ण नही थे जो उनका रथ हांक रहे थे । अर्जुन हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया बोला -केशव मैंने सदा आपका मार्ग दर्शन पाया है । प्रकृति मुझसे क्या करवाना चाहती है मैं नही जानता ,किंतु मैं अपने पितामह और गुरु पर बाण कैसे चलाऊ ।
श्री कृष्ण -मैंने राजसूय यग्य में जरा संध का वध अन्याय और अत्याचार को समाप्त करने के लिए किया था । मैं इस धरती पर धर्म की स्थापना के लिए आया हूँ । तुम इस युद्ध से पीछे नही हट सकते हो । अधर्म कोई भी करे वह सजा का भागी है ।
अर्जुन बोले -मेरे पितामह अधर्मी नही हैं । दुर्योधन अधर्मी है ।
श्री कृष्ण -तो तुम दुर्योधन का वध करो ।
अर्जुन -मार्ग में पितामह खड़े है ।
श्री कृष्ण -पितामह नही भीष्म ! भीष्म का वध किए बिना यदि दुर्योधन नही मारा जा सकता तो पहले किसे दण्डित होना चाहिए ?
श्री कृष्ण मुस्कुराए, बोले जीवन का सत्य यही है धनंजय । जब अधर्म के विरूद्व शस्त्र उठाओगे तो सबसे पहले तुम्हारे परिजन ही तुम्हारा हाथ पकडेंगे ।
अर्जुन तुम मनुष्य की दृष्टि से देख रहे हो इसलिए मोह में पड़े हो । तुम सम्पूर्ण की दृष्टि से देखो ,ईश्वर की दृष्टि से देखो । ईश्वर से जो सम्बन्ध तुम्हारा है वही सम्बन्ध पितामह का भी है । तुम दोनों ईश्वर के हो । प्रकृति ईश्वर की शक्ति है । प्रकृति भेद या व्यक्ति सम्बन्ध नही रखती ।
अर्जुन !मोह के कारण तुम्हें अपना धर्म नही दिख रहा है । तुम्हारी दृष्टि में भेद आ गया है । आसक्ति किसी को सत्य के दर्शन नही करने देती । तुम्हे स्वधर्म के लिए आसक्ति को त्यागना होगा ।
अर्जुन बोले -मैं आपका शिष्य हूँ केशव । किंतु मैं पितामह का पौत्र भी हूँ । उनके प्रति भी मेरा धर्म है ।
अर्जुन ने देखा श्री कृष्ण के चेहरे का तेज सूर्य से अधिक था जो उसके लिए असह्य होता जा रहा था । आकाश के सूर्य से अधिक प्रखर था श्री कृष्ण का तेज ।
कृष्ण की वाणी जैसे मेघो की गर्जना सी लग रही थी बोले -अर्जुन !ऐसा कोई काल नही था जब तुम नही थे या मैं नही था । तुम मोह के कारण अपना स्वरूप भूल गए हो ।
श्री कृष्ण का स्वरूप बड़ा विशाल लग रहा था । उनका अद्भुत रूप देख कर अर्जुन विस्मित था । वह अपलक भगवान् को निहारता ही रहा ,अपनी सुध भूल गया ।
भगवान् बोले -अर्जुन तुम्हे विस्मृत हो गया है पर मुझे याद है । इस शरीर में मैं ही आत्मा के रूप में स्थित हूँ । समस्त भोग भोगते हुए भी मैं मुक्त हूँ । मैं यह शरीर नही हूँ ।
अर्जुन डरते हुए पूछा -मैं कौन हूँ केशव
कृष्ण बोले -तुम भी वही हो जो मैं हूँ । तुम पर मोह का आवरण है तुम अपना आत्मभाव भूल गए हो इसीलिए तुम अपना स्वरूप नही देख पा रहे हो । तुम या मैं नही ,यह युद्ध प्रकृति करवा रही है । प्रकृति ही प्रकृति के विरुद्ध लड़ रही है । कोई किसी को नही मार रहा है । जो मार रहा है वह भी मैं हूँ जो मर रहा है वह भी मैं ही हूँ आत्मवान अर्जुन अपने धर्म को न भूलो
"यहाँ श्री कृष्ण ने अर्जुन को आत्मवान कहा है जिसका भाव यह है की -अर्जुन अपने क्षत्रिय स्वभाव ,अपने धर्म ,अपने गुण को न छोडो नही तो निरात्मा कहे जाओगे "अर्जुन मोह में पड़ कर अपने व्यक्तित्व को नकार रहा था युद्ध के क्षेत्र को छोड़ने को तैयार था ।
अर्जुन व्याकुल स्वर में बोला -केशव मेरे अपने युद्ध के मुहाने पर खड़े हैं । मैं यहाँ आपके साथ हूँ । मेरे शत्रु क्या सोचेंगे ।
मैं सारे धर्म -क्षत्रिय धर्म ,भाई का धर्म ,शिष्य का धर्म ,पिता ,पौत्र का धर्म सब एक साथ कैसे निभाऊं
भगवान् का स्वर असाधारण हो उठा ,जैसे लगा ब्रम्हादेश है -"अर्जुन तू सब धर्मों को त्याग कर केवल मेरी शरण में आ जा मैं तुझे समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा ।
अर्जुन चेतना के दिव्य सागर में तैर रहा था -क्या वह मात्र दृष्टा है ,करता कोई और है ,यह क्या धटित हो रहा है .........अर्जुन को लगा जैसे उसके चारों ओर कृष्ण ही कृष्ण हैं कृष्ण जी का अद्भुत रूप देख कर नर श्रेष्ठ अर्जुन डर गया ,कापते हुए पूछा -आप कौन हैं ।
श्री कृष्ण हँसे ,लगा जैसे बिजली चमकी हो आकाश इन्द्रधनुषी हो गया बोले -'मैं ही हूँ ,मैं ही महाकाल हूँ ,सब मुझसे ही प्रकट हुआ है और मुझमे ही विलीन हो जायगा '।
अर्जुन ने देखा उसके चारों तरफ का संसार विचित्र सा हो गया है ,कृष्ण मंद -मंद मुस्कुरा रहे थे । अर्जुन का अस्तित्व उन में समाता जा रहा था ,श्री कृष्ण एक प्रकाशपुंज में परिणत हो गए थे ,जैसे सहस्त्रों सूर्य एक साथ आकाश पर उदित हो गए थे । सूर्य ,वायु ,जल ,वनस्पति ,जीवजन्तु ,वृक्ष तथा पूरा ब्रम्हांड उनमे ही समाहित है । उनके सहस्त्रों मुख प्रकट हो गए थे । बड़ी बड़ी सेनाये उनमे समाती जा रही थी एक तरफ़ लोग लड़ मर रहे थे दूसरी तरफ़ लोग जन्म ले रहे थे ,पृथ्वी का पूरा श्रृष्टि चक्र भगवान् के मुख में था उसमे अर्जुन ने अपने सगे -सम्बन्धियों को भी देखा भीष्म ,द्रोण ,दुर्योधन सबको देखा । अर्जुन ने अपने नेत्र बंद कर लिए ,जब आँखे खोली तो सब यथा वत पाया पाया भगवान् ने अपनी माया समेट ली ।
रथ पर बैठे कृष्ण मुस्कुरा रहे थे ।
यह क्या था केशव -अर्जुन ने पूछा !
श्रृष्टि का सत्य -श्री कृष्ण ने कहा !
अब अर्जुन युद्ध के लिए प्रस्तुत था । वह अपना क्षत्रिय धर्म और कर्तव्य समझ गए । अर्जुन आत्मवान हो उठा ,गांडीव धारण किया । आत्मस्थ अर्जुन को दिव्य अनुभूति हुई । श्री कृष्ण चले रथ को लेकर रणभूमि में ।
" पार्थ !आकस्मात प्राप्त स्वर्ग के खुले हुए द्वार की भांति ऐसा युद्ध भाग्यशाली क्षत्रिय को ही प्राप्त होता है ।"
जब चारों ओर घोर अँधेरा हो और दूर -दूर तक कोई आशा की किरण न दिखाई पड़ रही हो गहरा विषाद छाया हो तो विषाद को आह्लाद में बदलने का काम करती है गीता ।
गीता की दिव्यता और अलौकिकता संसार में कहीं नही है । आशा का जमागाता सूर्य है गीता । विषाद को योग बनाती है गीता । जब अर्जुन विषाद में डूब कर अपने स्वधर्म से विमुख होने जा रहा था तब गीता ने उसे ज्ञान दिया ।
गीता कहती है मृत्यु तो शरीर की होती है ,जीव की नही । जब शरीर मरता है तो जीव निकल जाता है ,जीव भटकता रहता है जब तक वह पुनः नया शरीर नही पा जाता । शरीर रुपी वस्त्र पहन कर जीव फ़िर जन्म लेता है। इस प्रकार इस जीव के न जाने कितने जन्म हो चुके हैं और कितने सम्बन्धी बन चुके है । शरीर रूपी वस्त्र पहन कर यह जीव फ़िर सुख -दुःख की चिंता में पड़ जाता है । इस शरीर में रहकर ही सुख ,आह्लाद ,मोक्ष और खशी की राह दिखाती है गीता ।
शरीर की यात्रा तो बिना कुछ किए भी चलती है और जन्म से मरण तक की यात्रा करती है पर जीव की यात्रा लम्बी चलती यह और इसके रिश्ते भी बदलते रहते हैं । संसार के रिश्ते नाते निभाने चाहिए ,हंस कर सब करना चाहिए पर एक बात हम भूल जातें हैं की इस जीव का सच्चा रिश्ता तो ईश्वर से है ।
जीवन के सारे रिश्ते उन्ही से हैं हमारे भीतर जो बसता है हम उससे ही कितनी दूर रहते हैं । हमारे भीतर जो प्राण है वो कौन है ?हमारी आंखों में जो रौशनी है वो कौन है ? हमारे कानो में जो श्रवण हैं वो कौन है ?उसे पहचानो । इस जीवन यात्रा का सच्चा साथी वही है -ईश्वर
भगवान् कहतें है -
-ज्ञान श्रेष्ठ है पाप के सागर से ज्ञान की नौका से ही पार पाया जा सकता है ।
-कर्म को तपस्या बना लो यही कर्म योग है ,ज्ञान के द्वारा अच्छे और बुरे की पहचान करो और कर्म की उच्चा अवस्था को पा लो । कर्म शुभ फल देगा ।
-जो शक्तियाँ समाज की शत्रु हैं उनको ख़तम करना कल्याण का काम है ।
-हे पार्थ निष्काम कर्म स्वयं को दूषित नही करता ।
-अपने आस -पास के सुगंध और दुर्गन्ध को लेने के लिए इन्द्रियां विवश होतीं हैं इसलिए अपनी चेतना को जागृत करो । राग ,ध्वनी,और कोलाहल को कान जरुर सुनेंगे ,आँखे क्या देंखे ,मुख क्या कहे अपने ज्ञान के द्वारा निश्चित करो ।
-हम समाज में रहते हैं इसलिए हमारे कर्म अनुकरणीय होने चाहिए ।
-काम ,क्रोध,लोभ,मोह,वासना ये सब पाप कर्म करवटें हैं इसलिए इनसे दूर रहो ।
-निष्काम कर्म के मार्ग पर चल कर भी जीवन जिया जा सकता है ,यह हमें श्री कृष्ण जी ने गीता में बताया है ।
-शरीर का सत्य है मृत्यु इसलिए इसका शोक नही करना चाहिए ,अपने धर्म का पालन करना चाहिए ।
"ॐ नमो नारायणा "
गीता हमारा रक्षा कवच है -
मोह रात्री ,घोर कष्ट में ,दुःख में ,निराशा में ,हताशा में ,गहन अन्धकार में जब आस -पास कोई रौशनी न दिख रही हो ऐसे वक्त में यह ईश्वरीय ज्ञान हमें आशा और उत्साह देता है । गीता हमें शुद्द्घ ज्ञान से अवगत कराती है ,पुनर्जीवन देती है ।
विद्वानों कि बुद्धि ,बलवानो का बल ,तेजवान व्यक्तियों का तेज यह सब ईश्वर कि कृपा से होता है । समस्त चराचर में ईश्वर ही बीज रूप में व्याप्त है । आपने देखा होगा कितने पेड़ -पौधे अन्यास ही उग जातें हैं जानतें है कैसे ?कोई पक्षी अशुचि पूर्ण तरीके से कोई बीज गिरा देता है और एक दिन वह विशाल वृक्ष का रूप ले लेता है । कौन कहता है ,किसकी व्यवस्था है यह ?
कलकत्ता के "बोटानिकल गार्डेन "में एक वट वृक्ष है बहुत विशाल है वह उसके नीचे लाखों लोग छाया पातें हैं मीलों तक फैली हैं इस वृक्ष कि भुजाएं इसका वर्णन नहीं है कि किसने लगाया हाँ अब उसकी देखभाल कि जाती है । कभी किसी पक्षी ने अशुचि पूर्ण तरीके से बीज गिरा दिया और वृक्ष बन गया ।
हमारा निवास स्थान जहा हैं वहां भी तीन पीपल के विशाल वृक्ष थे पर उसे लगाया किसी ने नहीं था । वह इतने जैयद (बड़े )थे कि उनसे पार होकर सूर्य कि किरने हमारे घर तक नहीं आ पाती थी । बाद में बहुत कोशिश करके इनको कटवाया ।यही है भगवान् का बीज रूप । आजकल "एन डी टीवी इमैजिन "पर एक प्रोग्राम आता है -राज पिछले जन्म का । उसमे किसी तरीके से आदमी को उसके पिछले जन्म में ले जातें हैं । एक डाक्टर हैं जो यह करतीं हैं ,६० मिनट के बाद आदमी अपने पिछले जन्म को देखता है ,वह बेहोशी कि हालत में दीखता है और अपने पिछले जन्म को देखता है ,उसमे दुःख -सुख और अपने कर्मो को देखकर वह अपने वर्तमान को जोड़ता है । जब वह जागता है तो सब सच मानता है ।
यही बात हजारों साल पहले ही श्री कृष्ण जी ने गीता के माध्यम से हम मानुषों को बताई कि कर्म का फल नहीं त्याग सकते । यह भोगना ही पड़ेगा फल तो मिलेगा ही बस कर्म का ध्यान रखो । महर्षि भृगु ने भी पिछले जन्म कि विवेचना के आधार पर आज के दुःख सुख को जोड़ा है । महर्षि भृगु ने कुल १० करोड़ कुण्डलिया बनाई हैं । उनकी संहिता नालंदा में रखी थी । मुग़ल काल में मुहम्मद गोरी ने जबआक्रमण किया तो नालंदा का पुस्तकालय जला दिया गया था तो उसमे "भृगु संहिता "का
एक बड़ा भाग जल गया । आज हमारे पास बची हुई लिपि ही है । भृगु संहिता कुल ११ खंड में थी । भृगु के पुत्र "शुक्राचार्य "थे कहतें हैं उनके पास मृत संजीवनी विद्या थी जिनके कारण दैत्य इतने बलवान हो गए थे । शुक्राचार्य दैत्यों के गुरु थे । भृगु संहिता के अनुसार भी -जिनके पास कोई ऐसा दुःख है जो नहीं समझ पाते कि क्यों है उसका कारण उनका पूर्व कर्म होता ।
तो बात हो रही है गीता-अमृत कि । अर्जुन जब मोह निशा में भटक कर अपने धर्म को ,कर्तव्य को भूल रहा था तब भगवान् ने उसे गीता का ज्ञान देकर उसके क्षत्रिय धर्म को जगाया था । अर्जुन विजयी हुआ धर्मराज्य की स्थापना हुई ।
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१५/१२/२००९
Friday 16 October 2009
chlo deep jalayen
he maa!!! is deepawli par mere desh ka hae kona roshan ho jaay ,bhukh ki mritu ho jaay ,samriddhi ki jay ho jaay ,khushi foole fale lakshmi mere hindustaan me bas jaay ।chalo ek diya jalayen -alakshmi ko bhagaane ke liye .
हमारे देश में दीपावली का त्यौहार बड़ी धूम धाम और उल्लास के साथ मनाया जाता है । हमारे वेदों में और अन्य ग्रंथो में इसका उल्लेख मिलता है । इस पर्व पर दरिद्रता का नाश और धन लक्ष्मी का आगमन हो इसलिए इस दिन श्री गणेश ,माँ लक्ष्मी और श्री कुबेर की पूजा की जाती है ।
इस पर्व पर पटाखे भी चलाये जाते हैं और हर साल आग भी लगती है दुःख की बात यह है की करोडों के पटाखे जला दिए जाते हैं और दूसरी और ऐसे भी लोग हैं जो बुनियादी जरूरतों से जूझ रहे होते है । हमारे देश के बुद्धि जीवियों को सोचना चाहिए । पहले उनके मुख में निवाला दे जो भूखे है । खाए -अघाये लोग पटाखे जला कर दोहरा नुक्सान करते है । पैसा तो बेकार करते ही हैं उस पर प्रदूषण भी बढाते हैं ।
यह दिन शुभता को बढाए ,हमारे देश में उस दिन सब को खुशी मिले ,कोई मनुष्य भूखा न रह जाय हम हर दीप के साथ एक कोना रोशन करे इस संकल्प के साथ दीपावली मनाये तो हमारा भारत हंसेगा ,हम सब खुश रहेंगे और उत्सव पर्व मनाएंगे । तभी तो होगी शुभ दीपावली !!!
हमारे देश में दीपावली का त्यौहार बड़ी धूम धाम और उल्लास के साथ मनाया जाता है । हमारे वेदों में और अन्य ग्रंथो में इसका उल्लेख मिलता है । इस पर्व पर दरिद्रता का नाश और धन लक्ष्मी का आगमन हो इसलिए इस दिन श्री गणेश ,माँ लक्ष्मी और श्री कुबेर की पूजा की जाती है ।
इस पर्व पर पटाखे भी चलाये जाते हैं और हर साल आग भी लगती है दुःख की बात यह है की करोडों के पटाखे जला दिए जाते हैं और दूसरी और ऐसे भी लोग हैं जो बुनियादी जरूरतों से जूझ रहे होते है । हमारे देश के बुद्धि जीवियों को सोचना चाहिए । पहले उनके मुख में निवाला दे जो भूखे है । खाए -अघाये लोग पटाखे जला कर दोहरा नुक्सान करते है । पैसा तो बेकार करते ही हैं उस पर प्रदूषण भी बढाते हैं ।
यह दिन शुभता को बढाए ,हमारे देश में उस दिन सब को खुशी मिले ,कोई मनुष्य भूखा न रह जाय हम हर दीप के साथ एक कोना रोशन करे इस संकल्प के साथ दीपावली मनाये तो हमारा भारत हंसेगा ,हम सब खुश रहेंगे और उत्सव पर्व मनाएंगे । तभी तो होगी शुभ दीपावली !!!
Sunday 4 October 2009
तू बोला और मैं चला
आज का आदमी अपने खिलाफ कुछ नही सुनना चाहता (माफ़ करे आदमी से मेरा तात्पर्य सिर्फ़ पुरूष नही है इसमे स्त्री -पुरूष दोनों आते हैं ) है वह इस अंहकार में हमेशा रहता है की मैं ही सही हूँ । मैं जो सोचता हूँ वह बेहतर है ,मैं जो करता हूँ वही काम है ,मैं जो कहता हूँ वही वाक्य है इसिलए इतना बेचैन है आज का आदमी ,आज का आदमी कसौटी पर उतरना नही जानता वह भाग रहा है । कुछ समझने का समय उसके पास नही है कुछ सुने से पहले वह चल देता है ,बहुत सोचा तो यह की पहले सब अच्छा था ,फ़िर पीछे भगा मूल्यों को समझने के बजाय वह चल देता है ।
आज का आदमी इतना संकुचित ह्रदय वाला है की उसके दिल में एक सुंदर मन -जो उसे शान्ति दे सके नही समां पाता अगर कोई उसे इसका हल बताये तो वह चला ।
आज का आदमी कागज़ का फूल है जो ऊपर से सुंदर भीतर का कल्पना से परे अगर आपने उसे आइना दिखाया तो वो चला ।
वह ऊपर नही नीचे से ही सब कुछ पाना चाहता है ख़ुद को नही देखता पर दूसरों को पूरा देखता है अगर आपने ग़लत कहा तो वह चला ।
पहले सब बहुत अच्छा था यह कहता है आज का आदमी पर अगर उस पर चलने को कहो तो वह चला ।
सबको उपदेश देता आदमी -आप पूछो की आप कितना पालन करते है इन उपदेशो का तो वह चला ।
आइये बताऊँ इंसान क्या होता है अरे !तू फ़िर बोला मैं तो चला ।
आज का आदमी इतना संकुचित ह्रदय वाला है की उसके दिल में एक सुंदर मन -जो उसे शान्ति दे सके नही समां पाता अगर कोई उसे इसका हल बताये तो वह चला ।
आज का आदमी कागज़ का फूल है जो ऊपर से सुंदर भीतर का कल्पना से परे अगर आपने उसे आइना दिखाया तो वो चला ।
वह ऊपर नही नीचे से ही सब कुछ पाना चाहता है ख़ुद को नही देखता पर दूसरों को पूरा देखता है अगर आपने ग़लत कहा तो वह चला ।
पहले सब बहुत अच्छा था यह कहता है आज का आदमी पर अगर उस पर चलने को कहो तो वह चला ।
सबको उपदेश देता आदमी -आप पूछो की आप कितना पालन करते है इन उपदेशो का तो वह चला ।
आइये बताऊँ इंसान क्या होता है अरे !तू फ़िर बोला मैं तो चला ।
Friday 25 September 2009
vidagdha
itna hi ahsaas bahut hai too ab mere paas bahut hai ,do shabdon me sachche dil se ki gai ardaas bahut hai .
antim iksha poochh rahe ho -ab jeene ki aas bahut hai
antim iksha poochh rahe ho -ab jeene ki aas bahut hai
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